अपना अपना धर्म।

महाभारत के युद्ध का आज 17 वाँ दिन था। कर्ण अपने पूरे सामर्थ्य से युद्ध लड़ रहा था। अर्जुन कर्ण को पूर्णतः रोकने में असफल रहे थे। परंतु आज होनी कुछ और थी। दोपहर बाद का समय था, कर्ण और अर्जुन आमने-सामने थे। दोनों वीर एक दूसरे पर नाना प्रकार के बाण चला रहे थे। इधर भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन का उत्साह बढ़ा रहे थे तो उधर शल्य कर्ण को हतोत्साहित करने वाली बात कर रहे थे, पर दोनों योद्धा पूरे मनोयोग से लड़ रहे थे। अचानक एक नाग ने आ कर कर्ण से बोला " हे महारथी तू मुझे बाण पर रख कर उपयोग कर मैं तुरंत अर्जुन का काम तमाम कर दूंगा"। कर्ण ने उस नाग को डाँटते हुए बोला ' तू मनुष्यता का दुश्मन है, मैं अपनी भुवन के जीत के लिए ऐसा पतित कार्य न करूँगा' । और उसने नाग को भगा दिया।
                                           अचानक कर्ण के रथ का चक्का रणभूमि के कीचड़ में फंस गया।  घोड़ो न बहुत जोड़ लगाया परंतु चक्का बाहर न निकल सका। अब कर्ण खुद नीचे आ कर अपने भुजाओ का जोड़ लगाया। उसके जोड़ लगाने से धरती डोल गई, परंतु रथ का चक्का न हिल सका, बडी अदभुत बात थी। 
     कर्ण को इस विपदा में पड़ा देख अर्जुन ने बाण चलना छोड़ दिया। तभी भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ललकारते हुए बोले" है पार्थ देख क्या रहे हो एक  अग्नि बुझी बाण इसकी ग्रीवा में उतार दे, इस से अच्छा मौका तुझे कभी नही मिलेगा"।  जीत के लिए भगवान श्रीकृष्ण की यह वाणी सुन कर्ण और अर्जुन दोनों अचंभित थे। 
अर्जुन ने विनम्रता से कहा" श्रीमन क्या यह  न्यायोचित कार्य होगा, क्या यह धर्म होगा" । भगवान  श्रीकृष्ण हस्ते हुए बोले " हे पार्थ मैं जितना कह रहा हु उतना करो, यह समय कार्य करने का है , न कि चिंतन करने का।  क्रिया को छोड़ चिंतन में फ़सोगे तो यह काल उलट कर तुम्हे ग्रस लेगा। जीत के लिए प्रभु की यह एषणा सुन कर्ण ने कहा " हे अर्जुन धीरज से काम लो, यह भुवन की जीत है भुवन में मिट जाएगी। परंतु एक  निहत्ते को मारने का जो कलंक लगेगा उसे कैसे धो पाओगे। यह वीर धर्म नही है"  । 
तभी श्रीकृष्ण ने कहा कि हे अर्जुन पूछ इससे की जब  लाक्षा गृह में पांडव जलाए गए थे, तब इसका धर्म कहाँ था। धृत क्रीड़ा में छल से पांडवो को हराया गया तब इसका धर्म कहाँ था । धोके से अभिमन्यु का वध किया गया तब इसका धर्म कहा था। आज जब इसके किए हुए कर्मो का फल उपस्थित हुआ है तब यह मुर्ख युद्ध क्षेत्र में धर्म खोजने आया है। हे पार्थ चला बाण। 
विश्व गुरु की यह बात सुन कर्ण ने कहा कि हे प्रभु छल से जब पितामह को गिराया गया क्या वो धर्म था। द्रोणाचार्य  का जिस प्रकार वध किया गया क्या वो धर्म था। हे श्रीमन जिस प्रकार आप मुझे मारने के लिए बतला रहे है क्या यह धर्म है। हे श्रीमन इस युद्ध भूमि में पांडव और कौरव दोनों धर्म को बहुत दूर रख चुके है। आज हलाहल से हलाहल को धोया जा रहा है। इतना कह कर्ण धरती पर घुटना लगा बैठ गया की अचानक एक अग्नि बुझी बाण उसकी ग्रीवा में धस गई, और एक ज्योति उसके शरीर से निकल कर ढलते सूर्य में समा गया।
 इस प्रकार महाभारत के धर्म युद्ध मे कर्ण का वध अर्जुन ने किया।
             हमे यह समझना चाहिए कि युद्ध कभी धार्मिक नही होता। इसे धर्म के नाम पर लड़ा तो जा सकता है, धर्म का जामा तो पहनाया जा सकता है, पर इसके अंदर छल,  छद्म इत्यादि पतित मानवीय भावनाओ का पुट होता है।
शासक , शासित, योद्धा, कमजोर सबका धर्म एक नही होता। इनमे हरेक का धर्म अलग होता है। हा चलती उसी की है जो शासक या विजेता होता है।
                                                  अभिषेक।

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